Monday, January 24, 2011
दैनिक भास्कर के 21 जनवरी के अंक में सम्पादकीय पृष्ठ पर 13 राज्य और 53 संस्करणों में प्रकाशित .........
Thursday, January 13, 2011
ऐतिहासिक चश्में में बुरहानपुर के वो दिन ....
वाकया अक्तूबर महीने का है . शाम के ४ बजे होंगे . ठण्ड का अहसास होने लगा था . पुलिस मुख्यालय से लेटर आ चुका था . अगले दिन बुरहान पुर के पुलिसवालों पर एक सर्वे के लिए निकलना था । तीन लोगों की टीम थी। इस टीम में साथ होना हमारे लिए कोई नया अनुभव नहीं था . वैसे भी हम अधिकतर साथ ही रहा करते थे । नया था तो बुरहानपुर जिसे हम तीनों किताबों में पढ़ चुके थे । ढ़ेर सारी बातें थी इस शहर की जो रोमांचित कर रही थी । ये भी इत्तेफाक था के हम तीनों प्राचीन इतिहास के छात्र रह चुके थे । प्राचीन अवशेषों से बहुत लगाव था । जैसे- तैसे रात कटी और अगले दिन पैकिंग हो गयी । कुशीनगर एक्सप्रेस से बुरहानपुर पहुंचे। स्टेशन से शहर में प्रवेश और प्रवेश द्वार के दर्शन । ये इतवार गेट था .....
शुरू हो गयी ऐतिहासिक यात्रा , जिसमें प्राचीन इतिहास के ब्रघ्नपुर को मध्यकालीन इतिहास के इमारतों में तब्दील हुए देख रहे थे । अब ठहरने का बंदोबस्त करना था । टीम के एक साथी को इस शहर का दूसरा अनुभव था । इसलिए हम दोनों उनके कहे अनुसार होटल कृष्ण में गए । जल्द ही एक रूम बुक करके हम लोग लजीज भोजन की तलाश में निकल गए । जल्द ही होटल हकीम पहुंचे जहाँ शाकाहारी और मांसाहारी दोनों की व्यवस्था एक ही मेज पर थी । खाना खाने के बाद हम लोग थके थे इसलिए जल्द ही सो गए । ........
तड़के सुबह तैयार होकर निकल पड़े तत्कालीन एसपी से मिलने । मध्य प्रदेश पुलिस के ऊपर एड्स की जागरूकता के सम्बन्ध में एक सर्वे करना था जिसमें हमें बुरहानपुर पुलिस पर इस अध्ययन का कार्यभार सौंपा गया था । एसपी ने टीआई को हमारी सुविधा के लिए दिशा निर्देश दे दिया । पहले दिन सर्वे का काम पूरा करके हम शहर में घूमने लगे । होटल से निकलते ही जामा मस्जिद के पिछले हिस्से में पहुँच गए ।
ये नगर के बीचोबीच स्थित था । साढ़े 36 मीटर लम्बी मीनारों को 1588-89 फारुखी शासक राजा अली खान ने बनवाया था । तब से लेकर अब तक काले पत्थरों से बने इस मस्जिद ने बुरहानपुर के अनेक रंग देखे ।
अक्तूबर 2008 में हुए कम्युनल राइट में पूरा शहर दंगे में झुलस रहा था ....
मस्जिद के पीछे दंगे का एक दृश्य ......
कुछ भी हो आज ये गलियां गुलजार थीं । दूर दूर तक दंगे का कोई नामोनिशान नहीं था । शाम करीब ६ बजे का वक्त होगा । मस्जिद पर नजर पड़ते ही उसमें प्रवेश कर उसे देखने की तीव्र इच्छा हुई ।......
लगभग ८ मीटर ऊँचा और ३ मीटर चौड़े प्रवेश द्वार से हम अन्दर गए । शहर के बीच शहर के कोलाहल से दूर बेहद शांत, नीरव ... चाहरदीवारी से घिरा बरामदा दिव्य सभागृह जैसा था । इबादत खाना लगभग ४८ मीटर लम्बा और१६ मीटर चौड़ा था । छज्जे पर पुष्प और पंखुड़ियों की बेहतरीन नक्काशी थी ....
कुछ देर हम वहीँ बैठे रहे । मस्जिदके निर्माण कल से सम्बंधित बातें होती रहीं .......
बातो - बातों में समय का पता ही नहीं चला । मस्जिद के किवाड़ बंद होने का समय हो गया । जाने से पहले मौलवी सेमुलाकात की । बेहद नम्र अंदाज में उन्होंने जानकारियां दी । ....
हम बहार आ गए । जैसा की किसी शहर का परिचय उसके खान -पान से भी होता है । बुरहान की जलेबी का नामबहुत सुना था तो खींच ले गयी जलेबी हमें बीच बाजार में । खाया और ........ क्या ? स्वाद की अभिव्यक्ति शब्दों में भला ये मुमकिन नहीं है । ये तौहीन होगी । ..... ???
... जारी
Tuesday, January 11, 2011
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