Saturday, December 11, 2010




दिन बीत जातें हैं यादों को याद करने में

चरों
तरफ सिर दिखाई दे रहें हैं , चुनौतियाँ बहुत हैं . लोग एक दूसरे से आगे निकलने की होड़ में हैं ..कोई अपने रास्ते पर अपनी गति से चला जा रहा है तो कोई शार्ट कट अपना रहा है .....कोई आगे निकलने के लिए लोगों को पीछे धकेल रहा है तो किसी को इस बात की चिंता है कि साथ चलने वाले आगे न हो जाएँ ...इन सबके पीछे छूट गया है ....बहुत कुछ ....इस रेस के धावकों के लिए एक यक्ष प्रश्न है जो लगातार पीछा करता रहता है ....जीवन के अन्तिम पड़ाव पर जाकर प्रगट होता है ...??? अगर बचपन में ही रेस में दौड़ा दिया जाये ,, ये सोचकर कि पहले कुछ हासिल हो जाये फिर बचपन को जी लेंगे ....मुझे नहीं लगता कि बचपन के पास इतना समय है कि वो ठहर जायेगा ...यही सवाल जीवन हर पड़ाव के साथ है ...ध्यान ही नहीं देते ...इन अमूल्य चीजों को खोने के आदि हो चुकें हैं ..ये अहसास कि बातें है ...लेकिन अहसास तो मरता जा रहा है ...बेहद अमानवीय , मशीनी युग में आ गएँ है ...अब हमारे संचार साक्षात् वर्बल न होकर ,, फोन इन , वीडियो चैटिंग , फेसबुक, इ मेल टाईप मशीनी हो गए है . ये समय की मांग है ...लेकिन संवेदना विहीन होना ??? पहले करियर बना लें फिर माँ से प्यार कर लेंगे ...दोस्तों का क्या है दूसरे बना लेंगे ॥ पत्नी/ पति का क्या है ... नाम , शोहरत , पैसा रहा तो बहुत आएँगी / आयेंगे । एक दूसरे की जरूरतों से भाग रहें है ...जब सामने होतें हैं तो भावनाओं की भाषा भी बेहद किताबी होती है ॥ उसमे भी NCERT , दार्शनिकों , लेखकों की कही हुई बातों से खुद को अपने तरीके (फायदे के लिए) से समझाने और समझने की कोशिश करतें है । जब समझ में आता है तो या वह व्यक्ति कहीं दूर जा चुका होता है या फिर वो नहीं समझ पता ॥पूरी किशोरावस्था और जवानी निकल जाती है कुछ अचीव करने में ......इस दौरान बहुत कुछ पीछे छूट जाता है ॥जब बात खुशियों को बाटने की होती है तो न कोई हँसने वाला होता है न कोई रोने वाला तब सब कुछ बौना सा लगता है ....और बाकी के दिन बीत जातें हैं यादों को याद करने में



Saturday, December 4, 2010


रियलिटी के चक्कर में

टेलीविजन पर दिखाने की होड़ मची हुई है। मचे भी क्यों ना। दृश्य माध्यम जो ठहरा। अब क्या दिखाएं कि लोग हमें देखें यह यक्ष प्रश्र लगभग सभी चैनलों का पीछा कर रहा है। इस प्रश्र की खोज में ये बातें सामने आती हैं कि जनता ने अब तक टीवी पर वो क्या नहीं देखा। चलिए इसका जवाब आप भी ढूढि़ए और हम भी। टीवी के लोगों ने तो इसको ढूढऩे में रात दिन एक कर दिया है। बहुत सारे विचार आए भी लेकिन उसे दिखाए कौन । सभ्यता, संस्कृति आड़े आने लगी। ऊपर से सेंसर भी बैठा हुआ है। सेंसर से तो निपट लेगें। उसमें तो अपने ही लोग हैं, प्रगतिवादी सोच वाले, सभ्यता और संस्कृति को समय के साथ परिभाषित करने वाले। समस्या जनता की है। कहीं वो रिजेक्ट न कर दे। जनता को भी इस प्रगतिवादी सोच और संस्कृति के मायने को समझाना पड़ेगा। उन्हे पश्चिम की बातों से रूबरू कराना होगा। फिर उसका सहारा लेकर हम आगे बढ़ेगें। लोगों में इन बातों को देखने की आदत डालनी होगी फिर धीरे धीरे हमें उन्हें दिखाना होगा वो सब जिसे शायद वो टीवी पर, समाज में भी रहकर नहीं देख पातें हैं। सेंसर तैयार, जनता तैयार तो फिर कोर्ट करता रहे ऑर्डर-ऑर्डर। कोई फर्क नहीं पड़ता। पहले टीवी पर हम लोग, नीम का पेड़, महाभारत, रामायण सरीखे सीरियल थे। एक तरफ भीष्म की प्रतिज्ञा का सम्मान होता था वहीं दूसरी तरफ जीवन के व्यावहारिक और सैद्दांतिक पक्ष में धर्म-अधर्म की भूमिकाओं से प्रेरणा पाते थे। अनेकता के मोतियों को एकता के धागे में पिरोता हुआ सीरियल हम लोग भी लोगों में लोकप्रिय था। तब लोग शायद अनपढ़, अज्ञानी थे। अब तो पढ़े लिखों का समाज है। इस समाज ने तो परिभषाएं ही बदल डाली हैं। इस साक्षर समाज के अनुसार अगर 6 को 9 देखने में फायदा हो तो उसे 9 ही देखें। ऐसा लगता है कि पहले विकल्प भी नहीं थे। आज विकल्प है वराईटी है। एक तरफ मुन्नी जैसी ढ़ाबे वाली लडक़ी बदनाम है तो बियर बार की शीला भी काम नही है। अब तो लोगों के पारिवारिक झगड़े भी पुराने हो गए हैं। उसमें कोई ट्विस्ट नही रहा। कहीं से नए तरीकों की प्रेरणा भी नहीं मिल रही है। सास भी कभी बहु थी पुराना हो गया। लेकिन उदास होने की बात नही है। अब बिग बॉस देखिए। वराईटी से भरपूर। नए तरीकों के एक्टिवीटिज, झगड़े, प्यार , षड्यंत्र के साथ। यहां खली हैं तो डॉली भी हैं। सारा हैं तो वीना भी पॉमेला एंडरसन को भी बुलाया गया था। ताकि लोग पश्चिमी सभ्यता के खुलेपन को देखकर ये तय करें कि वो इस मामले में कितने पीछे हैं। अगर घर की छोटी-छोटी घटनाओं को किसी से शेयर करने में शर्म आ रहा हो तो इस लिबास को ऊतार फेंकिये । भला सेलिब्रिटिज ओछी हरकतें कर सकतें हैं तो आप क्यो नहीं। अब तो इन हरकतों को ओछी कहना भी ठीक नहीं होगा। अब घरेलू समस्याओं को भी बेंचा जा सकता है। उसे आपस में सुलझाने की भी जरूरत नहीं। उसे राखी सावंत सुलझाएंगी जिन्हें इसकी विशेषज्ञता हासिल है।
हद
हो गयी फिर भी लोग चुप हैं। देखे जा रहें हैं।

Wednesday, December 1, 2010


काश मैं जानता

आज भी याद है, आपके जिक्र ने वो पेड़ हरा कर दिया जो आज बेजान दिख रहा है। कबड्डी का जबरदस्त खिलाड़ी था। सब मुझ पर जान छिडक़ते थे। बनवारी दद्दा कहते थे कि, अबकी नागपंचमी पर सतेंदर (बदला हुआ नाम) के कबड्डी देखे बिना नाई जाबे, ससुरी खंसी से लागत हो कि अभिये जान निल जाइबे। मनमोहन, सुरेश और रामजनम के बिना हमारी सुबह होती थी ही शाम। जैसे ही जवानी की दहलीज पर कदम रखा, घरवालों ने शादी कर दी। पढ़ाई-लिखाई भी छूट गयी। अब तो परिवार के पालन-पोषण की जिम्मेदारी भी सर पर थी। समय ने करवट ली। आज मेरे 3 बच्चे हैं। 15 लोगों का सम्मिलित परिवार है। जिम्मेदारियां मेरी जवानी निगल गयी। खैर ये तो होना ही था, लेकिन जो मैने सपने में भी नहीं सोचा था वो कैसे हो गया। जीते जी मैं अछूत हो गया। डरावना हो गया। मेरे अंदर शैतान गया। मैं जिसे छू लूँगा वो भी मेरी तरह हो जाएगा। जो मिलने के लिए बेताब होते थे वो मुझे दूर से भी देखना पसंद नहीं करते। ऐसी कौन सी गलती कर दी जिसकी इतनी बड़ी सजा दी जा रही है। गैरों की क्या कहू खुद की बहन ने अपने घर से यह कहकर दुत्कारा कि आप जल्दी चले जाओ नहीं तो मेरे बच्चे, मेरा परिवार सब बरबाद हो जाएगा। उसने पानी भी दिया तो तिरस्कार की चरम सीमा पार करके। लोग जानवरों के भी नजदीक जाकर पानी रखते हैं और उसने तो दरवाजे की ढ्योढ़ी पर रख दिया जिससे मेरी परछाई भी ना पड़े। मैने इस बिमारी का नाम तो सुना था लेकिन भयावहता को पहली बार देखा। मैं एचआईवी पॉजिटिव हो चुका था। ये भी तब पता चला जब भतीजे की तबियत खराब हो गयी। उसे खून देना था। पूरा परिवार उसे बचाने में लगा था। मैने भी खून देने की बात कही। डॉक्टर ने खून जांच के बाद मुझे खून देने से मना कर दिया। खैर भतीजे की चिंता के आगे इस बात की फिक्र ही नही हुई। आखिर हम उसे बचा नही पाए। उस गम से उबरने पर अपनी सुध आई। फौरन मैं पत्नी के साथ आस्पताल पहुंचा। तब डॉक्टर ने मुझे बताया कि मैं एचआईवी पॉजिटिव हो चुका हूं। उन्होंने संक्रमण के सारे कारण बताए। एक कारण पर मेरा दिमाग ठहर गया। अब सब कुछ साफ था। रेलवे में वेंडर की नौकरी करते-करते कब मेरी जिंदगी की रेल ने अपना ट्रैक बदल दिया कुछ पता ही नही चला। ये एक ऐसा ट्रैक था जिसमें आगे पटरी ही नहीं थी। यानी सफर कुछ दिनों का। अब तो हैदराबाद की तंग गलियां, दोस्तों के बहकावे में आकर वहां ठहरना, क्षणिक सुख के लिए पूरी जिंदगी दांव पर लगा दी। अचानक डॉक्टर ने मुझे झकझोरा ---कहां खो गए। उन्होंने खूब साहस दिया। उनकी बातों से कुछ राहत मिली तो उन्होंने पत्नी और बच्चों का भी खून जांच कराने की सलाह दी। बच्चे तो बच गए लेकिन...... उसने मुझसे कुछ नही कहा। ये बात मुझे और सालने लगी। घर में मातम छा गया। घरवाले पत्नी के ऊपर नजरें टेढ़ी करने लगे। मैं तो बर्फ की तरह जम गया था। आखिर पिघला पत्नी के लिए। सुमनी (परिवर्तित नाम) ने कुछ नहीं किया है। सब मेरा किया धरा है। अरे मैने तो उसे जीते जी मार डाला। ये क्या हो गया मुझसे......काश मैं जानता.......काश मैं जानता तो......

नोट- प्रस्तुत कहानी लेखक और एक एचआईवी प्रभावित व्यक्ति की बातचीत पर आधारित है। यहां नाम और पता प्रकाशित करने की शर्त पर कहानी लिखी गयी है। शायद प्रभावित को डर है कि कहीं प्रकाशन के बाद लोग मुझसे और घृणा करने लगें। ये डर वाजिब भी है। इस प्रभावित व्यक्ति से मुलाकात भोपाल में एचआईवी पर आधारित एक कार्यशाला में हुई थी।
लेखक- बृजेश कुमार उपाध्याय
खेवैय्या कहाँ है ?

हर तरफ हुश्न की कश्तियाँ चल रहीं थीं ,
वो पागल शराबी खेवैय्या कहाँ है ,
पड़ा होगा पी कर कहीं मैकदे में
ढूढता होगा दारू में लैला कहाँ है ,
अगर होश आये तो होगी रूश्वाई
बता मेरा सारा रुपईय्या कहाँ है ,
अगर ऐसे माझी की नैय्या पकड़ ली
तो पूछन लगेगा खेवैय्या कहाँ है .....

पंकज उपाध्याय , पूर्व प्रेसिडेंट P.G. College Ghazipur (U.P.)

समय

ये सूरज ये चंदा ये तारे ये धरती ,
समय ने बनाया -समय ने बनाया ,
समय ने ही लैला और मजनू बनाया ,
समय ने ही हीर और राँझा बनाया ,
समय ही है जिसने लड़कपन बनाया ,
जवानी बनाई बुढ़ापा बनाया ,
समय का ये चक्कर कि मिलता है कोई ,
बिछड़ता है कोई तड़पता है कोई ,
समय जिसको चाहे गगन से मिला दे ,
समय जिसको चाहे मिटा दे बुझा दे ,
कही सबने अपनी-अपनी कहानी ,
कृष्ण के कहने से गीता है जानी ,
मुहम्मद के कहने से जाना कुरान
समय की कहानी क्या कोई कहेगा ,
ये कब से चला है और कब तक चलेगा.....?..?..?

मेरे बड़े भाई पंकज उपाध्याय द्वारा लिखित
पंकज उपाध्याय , पूर्व प्रेसिडेंट , P.G. College Ghazipur (U.P.)