Wednesday, December 1, 2010
काश मैं जानता
आज भी याद है, आपके जिक्र ने वो पेड़ हरा कर दिया जो आज बेजान दिख रहा है। कबड्डी का जबरदस्त खिलाड़ी था। सब मुझ पर जान छिडक़ते थे। बनवारी दद्दा कहते थे कि, अबकी नागपंचमी पर सतेंदर (बदला हुआ नाम) के कबड्डी देखे बिना नाई जाबे, ससुरी खंसी से लागत हो कि अभिये जान निल जाइबे। मनमोहन, सुरेश और रामजनम के बिना न हमारी सुबह होती थी न ही शाम। जैसे ही जवानी की दहलीज पर कदम रखा, घरवालों ने शादी कर दी। पढ़ाई-लिखाई भी छूट गयी। अब तो परिवार के पालन-पोषण की जिम्मेदारी भी सर पर थी। समय ने करवट ली। आज मेरे 3 बच्चे हैं। 15 लोगों का सम्मिलित परिवार है। जिम्मेदारियां मेरी जवानी निगल गयी। खैर ये तो होना ही था, लेकिन जो मैने सपने में भी नहीं सोचा था वो कैसे हो गया। जीते जी मैं अछूत हो गया। डरावना हो गया। मेरे अंदर शैतान आ गया। मैं जिसे छू लूँगा वो भी मेरी तरह हो जाएगा। जो मिलने के लिए बेताब होते थे वो मुझे दूर से भी देखना पसंद नहीं करते। ऐसी कौन सी गलती कर दी जिसकी इतनी बड़ी सजा दी जा रही है। गैरों की क्या कहू खुद की बहन ने अपने घर से यह कहकर दुत्कारा कि आप जल्दी चले जाओ नहीं तो मेरे बच्चे, मेरा परिवार सब बरबाद हो जाएगा। उसने पानी भी दिया तो तिरस्कार की चरम सीमा पार करके। लोग जानवरों के भी नजदीक जाकर पानी रखते हैं और उसने तो दरवाजे की ढ्योढ़ी पर रख दिया जिससे मेरी परछाई भी ना पड़े। मैने इस बिमारी का नाम तो सुना था लेकिन भयावहता को पहली बार देखा। मैं एचआईवी पॉजिटिव हो चुका था। ये भी तब पता चला जब भतीजे की तबियत खराब हो गयी। उसे खून देना था। पूरा परिवार उसे बचाने में लगा था। मैने भी खून देने की बात कही। डॉक्टर ने खून जांच के बाद मुझे खून देने से मना कर दिया। खैर भतीजे की चिंता के आगे इस बात की फिक्र ही नही हुई। आखिर हम उसे बचा नही पाए। उस गम से उबरने पर अपनी सुध आई। फौरन मैं पत्नी के साथ आस्पताल पहुंचा। तब डॉक्टर ने मुझे बताया कि मैं एचआईवी पॉजिटिव हो चुका हूं। उन्होंने संक्रमण के सारे कारण बताए। एक कारण पर मेरा दिमाग ठहर गया। अब सब कुछ साफ था। रेलवे में वेंडर की नौकरी करते-करते कब मेरी जिंदगी की रेल ने अपना ट्रैक बदल दिया कुछ पता ही नही चला। ये एक ऐसा ट्रैक था जिसमें आगे पटरी ही नहीं थी। यानी सफर कुछ दिनों का। अब तो हैदराबाद की तंग गलियां, दोस्तों के बहकावे में आकर वहां ठहरना, क्षणिक सुख के लिए पूरी जिंदगी दांव पर लगा दी। अचानक डॉक्टर ने मुझे झकझोरा ---कहां खो गए। उन्होंने खूब साहस दिया। उनकी बातों से कुछ राहत मिली तो उन्होंने पत्नी और बच्चों का भी खून जांच कराने की सलाह दी। बच्चे तो बच गए लेकिन......। उसने मुझसे कुछ नही कहा। ये बात मुझे और सालने लगी। घर में मातम छा गया। घरवाले पत्नी के ऊपर नजरें टेढ़ी करने लगे। मैं तो बर्फ की तरह जम गया था। आखिर पिघला पत्नी के लिए। सुमनी (परिवर्तित नाम) ने कुछ नहीं किया है। सब मेरा किया धरा है। अरे मैने तो उसे जीते जी मार डाला। ये क्या हो गया मुझसे......काश मैं जानता.......काश मैं जानता तो......।
नोट- प्रस्तुत कहानी लेखक और एक एचआईवी प्रभावित व्यक्ति की बातचीत पर आधारित है। यहां नाम और पता प्रकाशित न करने की शर्त पर कहानी लिखी गयी है। शायद प्रभावित को डर है कि कहीं प्रकाशन के बाद लोग मुझसे और घृणा न करने लगें। ये डर वाजिब भी है। इस प्रभावित व्यक्ति से मुलाकात भोपाल में एचआईवी पर आधारित एक कार्यशाला में हुई थी।
लेखक- बृजेश कुमार उपाध्याय
Posted by
Brijesh Upadhyay
at
4:39 AM
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